Thursday, 2 July 2015

मोरी अरज सुनो


इस सूरत से
अर्ज़ सुनाते
दर्द बताते
नैया खेते
मिन्नत करते
रस्ता तकते
कितनी सदियाँ बीत गई हैं

अब जाकर ये भेद खुला है
जिस को तुम ने अर्ज़ गुज़ारी
जो था हाथ पकड़ने वाला
जिस जा लागी नाव तुम्हारी
जिस से दुख का दारू माँगा
तोरे मंदिर में जो नहीं आया

वो तो तुम्हीं थे
वो तो तुम्हीं थे
(फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)

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