8 साल का हो गया है ये blog। कमबख्त शुरू भी कैसे दिन किया था।
दिमाग थोड़ा सा ख़राब लगता है आजकल। अनाप शनाप कुछ भी चलता रहता है।
खाली तो नहीं है लेकिन भूसा ज़रूर भरा हुआ है दिमाग में ।
ग़ालिब क्यों नहीं पढ़ते आजकल हम लोग?
गुलज़ार की आवाज़ मुझे उतनी ही पसंद है जितनी उनकी शायरी।
कल बड़े दिनों के बाद गुलज़ार की ये नज़्म समझ में आयी।
दिमाग थोड़ा सा ख़राब लगता है आजकल। अनाप शनाप कुछ भी चलता रहता है।
खाली तो नहीं है लेकिन भूसा ज़रूर भरा हुआ है दिमाग में ।
ग़ालिब क्यों नहीं पढ़ते आजकल हम लोग?
गुलज़ार की आवाज़ मुझे उतनी ही पसंद है जितनी उनकी शायरी।
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